गुरुवार, 26 अगस्त 2021

 वैधव्य का शाप 


हाँ मैंने एक स्त्री को विधवा होते देखा 
अभी कल की बात थी , 
जब मैंने उसकी हँसी बगल वाले घर के आँगन में सुनी थी 
पर आज वो हँसी आँसुओं में बदलते देखकर , मैं सहम गयी
सच कहूँ तो मैंने एक लड़की को विधवा होते देखा। 

भविष्य के सपने लिए वो इस घर में आयी थी, थोड़ी शर्मीली सी थी, 
चेहरे की चमक उसकी मासुमियत बतलाती थी। 
उसकी बातों में ,मैं किसी रहस्यलोक में चली जाती थी, 
उसके जैसा कोई मेरा अपना होगा, यह हमेशा सोचती रहती थी
पर कैसे कहूँ कि मैंने उसे विधवा होते देखा। 

पर आज जब उसके वैधव्य संस्कार को होते देखा,
 तो समाज का असली चेहरा सामने आया 
कल तक जिसके रूप लावण्य पर सब मोहित थे 
आज उसके स्पर्श, उसके साएं से भागते हैं । 
सुहागिनें उसके संस्कार में शामिल नहीं हो सकती,
 कुमारी उसका मुख नहीं देख सकती ,
 क्या यहीं है आदर्श समाज ??? 
ऐसे समाज में सच कहूँ तो, 
 मैंने एक लड़की को विधवा होते देखा। 

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

परिवार

        परिवार


'परिवार'- शब्द या भावना, 

मेरे जीवन की विगत सारी घटना;

मेरा अस्तित्व व  मेरी बुनियाद, 

मर्यादा और बंधनों से बना, 

- मेरा परिवार। 


जन्म से लेकर आज तक , 

परिवार की गरिमा, मैंने केवल 

माँ को संभालते देखा है। 

इस शब्द के विस्तृत अर्थ को, 

मैंने संकुचित होते देखा है। 

भावना से शब्द के इस दौर में , 

मैंने उन्हें समझौते करते देखा है। 


समाज की आधारभूत  इकाई  है-  परिवार। 

मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व नैतिकता की राह

दिखाता है -परिवार। 

फिर क्यों अपनी जिम्मेदारी निभाने से डरता है -परिवार। 

असल में सन्युक्त से एकल होने की कहानी है - परिवार। 


                                   ज्योति कुमारी

शनिवार, 10 जुलाई 2021

कर्मभूमि उपन्यास का सारांश || karmbhumi| प्रेमचंद कर्मभूमि उपन्यास |

'कर्मभूमि' पुस्तक समीक्षा 


        उपन्यास- कर्मभूमि 
 लेखक - प्रेमचंद
संस्करण - सन् 2017
प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान 
मूल्य - 125 ₹


प्रेमचंद द्वारा रचित 'कर्मभूमि' उपन्यास की समीक्षा के माध्यम से हम कर्मभूमि उपन्यास के सारांश, उद्देश्य, किसानी समस्या, धार्मिक पाखंड, पात्र योजना, प्रमुख पात्रों के चरित्र चित्रण, उपन्यास की भाषा शैली आदि पक्षों पर विचार करेंगे। 


💻Table of content 


'कर्मभूमि' उपन्यास

'कर्मभूमि' उपन्यास प्रेमचंद द्वारा रचित एक यथार्थवादी उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1932 ई. में हुआ। प्रेमचंद ने इस उपन्यास की रचना सिविल नाफरमनी आंदोलन के दौरान की थी। यह स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि पर रचा गया उपन्यास है जो पाठक के समक्ष उस तबके के लोगों की समस्या को उठाता है जिन्हें हम नज़रंदाज़ करते है। यह उपन्यास मध्य वर्ग और निम्न वर्ग की समस्याओं को राष्ट्रीय समस्या के रूप में चित्रित करता है। और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है। हम जिसे निजी समस्या समझते है प्रेमचंद उसे एक व्यापक समस्या के रूप में उपस्थित करते है। 

कर्मभूमि का अर्थ

कर्मभूमि अर्थात्  व्यक्ति का कर्म क्षेत्र । कर्मभूमि उपन्यास में लेखक ने शीर्षक के माध्यम से पाठकों को कर्मयोग का संदेश दिया है। उपन्यास में धनी से धनी व्यक्ति अपना सुख त्याग कर औरों के हित के लिए कर्म क्षेत्र में उतर आते है। इस जीवन में व्यक्ति जब अपनी सुख सुविधाओं की चिंता से अधिक दूसरों के सुख दुःख की चिंता करने लगता है, तभी उसका जीवन संसार रूपी कर्मभूमि में फलीभूत होता है। जीवन की सार्थकता औरों के सुख में निहित है। स्वयं का सुख मनुष्य को स्वार्थी व संवेदनाशून्य बनाता है। 

 

कर्मभूमि उपन्यास का  यथार्थवाद

यथार्थवाद - कर्मभूमि उपन्यास एक यथार्थवादी उपन्यास है। इसमें चित्रित प्रत्येक पात्र यथार्थवादी मनोवैज्ञानीकी का सर्वोत्तम उदाहरण है। कर्मभूमि उपन्यास की समस्याएं धरती की ठोस वास्तविकताओं से उत्पन्न होती है। प्रेमचंद यथार्थ की विद्रुपता को अत्यंत संयमित ढंग से प्रस्तुत करते है। कर्मभूमि में प्रेमचन्द ने समाज, जीवन और व्यक्ति की समस्याओं का आंकलन अत्यंत यथातथ्यात्मक धरातल से किया है। उनके वर्णन की यथार्थता तो इस उपन्यास में पग- पग पर देखने को मिल जाती है। मुन्नी के साथ बलात्कार वाली घटना , लगानबंदी को कुचलने में मिस्टर घोष व सलीम की पशुता, मंदिरों में हरिजन के प्रवेश को रोकने हेतु गोली चलाना आदि विद्रुपताओं का इतना भयावह चित्रण किया है जिसे देख करुणा को भी करुणा आ जाती है। सलीम, लाला समरकांत, काले खाँ, सुखदा आदि पात्र यथार्थवादी पात्र है। पर उपन्यास में इन सभी चरित्रों को अंत में आदर्श के माध्यम से उबारने की कोशिश की गयी है। 


कर्मभूमि उपन्यास का सारांश  


कर्मभूमि उपन्यास का प्रारंभ अमरकांत के स्कूल की फ़ीस ना भर पाने की विवशता से प्रारंभ होती है। सलीम उसका मित्र जो उसकी फ़ीस देता है। फ़ीस ना भर पाने की वजह अमरकांत और उसके पिता लाला समरकांत के बीच चल रहा मनमुटाव है। दोनों के विचारों में काफी अंतर है पर उन्हें जोड़ने का काम नैना करती है। नैना अमरकांत की सौतेली बहन है, पर शक्ल-सुरत में अमरकांत की तरह दिखती है। उपन्यास की कथा में नया मोड़ तब आता है जब अमरकांत की शादी सुखदा से होती है। लाला समरकांत की इच्छानुसार सुखदा भी अमरकांत को दुकान पर काम करने के लिए कहती है। अमरकांत अब दुकान पर बैठ कर ही अपनी पढाई करता। वहां काम करते उसका परिचय काले खां से होती है जो चोरी का समान बेचने समरकांत के पास आता था। वहीं उसकी मुलाकात पठानिन जो सकीना की दादी है उससे होती है, जिसे लाला समरकांत जिवोकोपार्जन हेतु पाँच रुपए महीना देते थे। इन दोनों चरित्रों-पठानिन और काले खाँ को देखकर अमरकांत के मन में पिता के लिए एक और सम्मान बढ़ता है वही दूसरी और उन्हें निकृष्ट कोटि का काम करने वाला समझने लगता है। पठानिन के जरिये सकीना से मुलाकात होती है और उनकी नजदीकियां भी बढ़ती है। सुखदा को त्याग कर अमरकांत सकीना से विवाह करना चाहता है। यह सब कुछ अचानक नही होता, सुखदा और अमरकांत दो भिन्न प्रवृत्ति के थे। दोनों के मध्य सम्बन्ध स्थापित तो होते है किंतु प्रेम की पराकाष्ठा तक वे नही पहुँचते है। उन्हें एक बालक भी होता है पर वह भी इन्हें जोड़ पाने में सहायक नही होता और वह सकीना के प्रेम में अपनी जीवन की सार्थकता समझने लगता है। पठानिन के विरोध करने पर वह अमरकांत शहर छोड़ कर चला जाता है। इस बीच नैना जो शांति कुमार के प्रति अनुरक्त थी उसका विवाह एक विलासी पुरुष से हो जाता है। सुखदा भी अमरकांत के जाने के बाद  अपनी गलतियों को पहचानती है और अछूत के मंदिर प्रवेश को लेकर हुई आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है और जेल चली जाती है। उधर अमरकांत भी किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए जेल की सजा काटता है। उपन्यास का अंत जेल में ही संम्पन्न होता है। नैना की मृत्यु हो जाती है। सलीम और सकिना एक दूसरे के बंधन में बंध जाते है। अमरकांत और सुखदा भी खुशी खुशी एक दूसरे को अपनाते हैं। उपन्यास में यही मुख्य कथा है। जो प्रासंगिक कथाओं के सहयोग से अपने अंत तक पहुँचती है। 


कर्मभूमि उपन्यास का उद्देश्य

  • कर्मभूमि उपन्यास में प्रेमचंद ने परिस्थितियों के घात प्रतिघात के बावजूद व्यक्ति को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया है।
  • पात्रों के यथार्थ चित्रण द्वारा समाज को जागरूक किया है साथ ही मानवीय मूल्यों की रक्षा हेतु आदर्श द्वारा उन्हें उबारने का महत् प्रयास भी किया है। 
  • अमरकांत के द्वारा प्रेमचंद यह संदेश देते है की चारित्रिक दुर्बलता के कारण व्यक्ति अपनी सुखी जीवन को त्याग कर व्यर्थ में भटकता रहता है। 
  • समरकांत व धनिराम के माध्यम से पूँजीपति वर्ग के स्वार्थी व संकीर्ण जीवन का चित्रण किया है। 
प्रेमचन्द का उद्देश्य सर्वहारा वर्ग के सर्वग्रासी संघर्ष को चित्रित करना नही बल्कि धर्म और अत्याचार पर आधारित समाज व्यवस्था का विरोध कर एक ऐसे समाज की स्थापना करना है जो जीवन के मिथ्या आदर्शों का अंत कर एक नये युग का परिवर्तन कर सके। 


कर्मभूमि उपन्यास की मूल समस्याएं

जमीन की समस्या 
लगान कम करने की समस्या 
खेतिहर मजदूरों की समस्या
अछूतों के मंदिर में प्रवेश की समस्या 
नारी की असुरक्षा की समस्या 
पत्नी के समानाधिकार की समस्या 

कर्मभूमि उपन्यास की पात्र योजना व चरित्र चित्रण

कर्मभूमि उपन्यास के प्रमुख पात्र 

अमरकांत - नायक 
सुखदा - नायिका 
समरकांत - अमरकांत के पिता
रेणुका देवी - सुखदा की माँ
नैना - अमरकांत की बहन
मुन्नी - गाँव की लड़की जिसके साथ बलात्कार हुआ था 
सलीम - अमरकांत का दोस्त
सकीना - अमरकांत जिसके प्रति अनुरक्त था 
काले खां - चोरी का सामान बेचने वाला
प्रो शांतिकुमार - अमर के गुरु
      उपन्यास में और भी पात्र है जो प्रसंग वश आए है जिनके माध्यम से कथानक को उसके चरम बिंदु तक पहुँचाया गया है। सेठ धनीराम, चौधरी गुदर , पठानिन, मिस्टर घोष आदि कई पात्र है। प्रेमचंद इन पात्रों के माध्यम से  समाज का यथार्थ रूप सामने लाते हैं। और चरित्र परिवर्तन द्वारा  समाज में आदर्श की स्थापना करते है। जो समरकांत मानवता का शोषक था वह अंत में समाज सेवक बन जाता है। काले खां जिसका जीवन हत्या व अपराध में बीतता है, वह भी अंत में हीन कर्मों से सन्यास ले लेता है। उपन्यास का पात्र सलीम जो शासन और अधिकार के मध्य में निरीह जनता को दमन की चक्की में पीसता है, वह अंत में उन्हीं का रखवाला बन जाता है। धनीराम भी अंत में मनुष्यता की सेवा करता है। और उसके कारण ही सबकी रिहाई होती है। इस प्रकार हम देखते है की पात्रों की योजना प्रेमचंद ने परिस्थितियों के अनुकूल ही  किया है।  ग्रामीण व शहरी पात्रों की कहानी को एक चरमबिंदु पर लाकर समाप्त किया है। यह इस उपन्यास की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है।

कर्मभूमि उपन्यास की नायिका


कर्मभूमि उपन्यास की नायिका सुखदा प्रारम्भ में युवक प्रवृत्ति की युवती थी। उसका अमरकांत से बार बार तर्क करना, उसे समझाना यह दिखाता है कि वह उपन्यास में एक शिक्षित व तर्कशील चरित्र है जो अमरकांत को परिवार के प्रति उसके दायित्वों का बोध कराती है। इसके पीछे भी उसका ही स्वार्थ निहित है, ससुर के तानों को वह सहना नही चाहती है। ऐशोआराम में पली बढ़ी सुखदा छोटी छोटी चीजों के लिए दिये गए उलाहने को सहन नही कर पाती  और इसलिए अमरकांत को खुद अपनी जिम्मेदारी उठाने के लिए कहती है। 
उपन्यास के अंत में यही सुखदा जो वैभव और विलास पर जान देती है, वह समाजसेविका बन जाती है। सामंतवादी संस्कारों में पलने के कारण जो सुखदा सिद्धान्तः मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश से विरोधिनी थी वही सुखदा धर्म की रक्षा गोलियां से होती देखकर उस धर्म का विरोध करने को अमादा हो जाती है। सुखदा के चरित्र के माध्यम से प्रेमचंद आदर्शोंमुख यथार्थवाद की स्थापना करते है। 


कर्मभूमि उपन्यास का नायक

कर्मभूमि उपन्यास का नायक अमरकांत जो मध्यवर्गीय छात्र समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। उसके प्रेम संबंधों से भी उसके चरित्र के विकास को देखा जा सकता है। पिता से विचारों में मतभेद होने के कारण मानसिक दूरी बढ़ती जाती है। सुखदा से भी उसकी दूरी दोनों के अहं भाव के टकराव के कारण है। यह दूरी ही उसे धनतंत्र से अरुचि उत्पन्न करती है। पिता से अलग होने के बाद  उसकी घर गृहस्थी सुखदा को शिक्षिका के रूप में मिले आय से चलती है। क्युंकि सुखदा को उसका खद्दर बेचना पसंद नहीं, इन सब कारणों से वह सकीना की ओर खींचा चला जाता है। सकीना के प्रति उसके प्रेम का औचित्य सिद्ध नहीं होता है। और घर छोड़कर देहाती जीवन बिताने लगता है। वहाँ ग्रामीणों की सरलता सहजता के कारण उसमें समाजिकता का विकास होता है। वहाँ शिक्षा का प्रसार करता है, गाँव वालों को मदिरा सेवन व मांस भक्षण से विरक्त करता है। विश्वव्यापी मंदी की स्थिति में लोग लगान चुकाने में असमर्थ होते हैं इस आंदोलन में अमरकांत उनका नेतृत्व करता है। और अंततः समाज सेवा में संलग्न होने व विद्रोही भाषण देने के जुर्म में जेल जाकर अपनी चरित्र की सार्थकता सिद्ध करता है।  मन्मथनाथ गुप्त उसके प्रारंभिक चरित्र को देखते हुए उसे glorified wagabond की संज्ञा देते है, स्वयं प्रेमचंद उसे दिलजले त्यागी की संज्ञा देते है। पर अंत में  प्रेमचन्द अमरकांत के रूप में  मानव चरित्र का चित्र अंकित करते है। 

मुन्नी और सकीना का चरित्र चित्रण

 
उपन्यास की नायिका के रूप में सुखदा के चारित्रिक
विशेषताओं को देखा, इस अंश में हम मुन्नी और सकीना के चरित्र का अंकन करेंगे। 

मुन्नी 

मुन्नी उपन्यास की वह पात्रा है जिसके साथ पाठकों की सम्वेदना जुड़ी हुई है। दो गोरे सिपाहियों द्वारा उसका बलात्कार किया जाता है। अमरकांत और उसके दोस्त उसे बचाने आते है। बाद में मुन्नी उन दोनों सिपाहियों की हत्या कर देती है। और उसके विरुद्ध अभियान चलता है। जज साहब जब उसकी इस हत्या को मानसिक अस्थिरता घोषित कर उसे सज़ा से मुक्त कर देते है ,तो वहाँ उपस्थित लोगों की खुशी का ठिकाना नही रहता। सभी उस पूजनीय नारी का सम्मान करना चाहते थे,पर मुन्नी भीतर से टूट चुकी थी। वह कहती है " आज अगर सरकार मुझे छोड़ भी दे, मेरे भाई बहनों मेरे गले में फूलों की माला भी डाल दें, मुझ पर अशर्फियों की बरखा भी की जाए, तो क्या यहाँ से मैं अपने घर जाऊँगी? मैं विवाहिता हूँ। मेरा एक छोटा बच्चा है। क्या मैं उस बच्चे को अपना कह सकती हूँ। क्या अपने पति को अपना कह सकती हूँ। कभी नहीं।" 
इसके बाद मुन्नी काशी छोड़कर लखनऊ चली आती है। ट्रेन में उसकी मुलाकात दंपति जोड़े से होती है जिसका एक साल का बालक था। बालक के मोह में वह उस दम्पति जोड़े के साथ हरिद्वार चली जाती है।
वहाँ उनकी सेवा शुश्रुषा में लग जाती है। पर श्रीमती थोड़ी शक्की स्वभाव की थी, उसने मुन्नी पर लांछन लगा दिया और पति को भी उस वहम का जिम्मेदार ठहरा दिया। इतनी खरी खोटी सुनने के बाद मुन्नी वहाँ से भागना चाहती थी पर अचानक उसका पति और बच्चा वहाँ आ जाते है। मुन्नी उन्हें वापस लौट जाने को कहती है। इसके बाद मुन्नी के जीवन में एक नया मोड़ आता है। इस घटना के बाद मुन्नी गंगा में कूद पड़ती है पर चौधरी गूदर सिंह का बड़ा लड़का सुमेर उसे बचा लेता है। धीरे धीरे उसे मुन्नी से प्रेम होने लगता है, पर मुन्नी के विरोध करने पर वह उससे दूर रहने लगता है। एक दिन मुन्नी की तबियत खराब हो जाती है, और वह वैध को बुलाने गंगा पार जाता है, और गंगा में डूब जाता है। तब से मुन्नी चौधरी की बड़ी बहु के रूप में वहीं रहने लगती है। उपन्यास में मुन्नी की कहानी के आधार पर, उसे हम एक बेबाक स्त्री के रूप में देखते है। जो आवश्यकता पड़ने पर कुछ कर गुजरने का हौसला रखती है। उन दोनों गोरे सिपाहियों की हत्या यह जाहिर करती है कि समाज में मुन्नी ऐसे लोगों के अस्तित्व को मिटा देना चाहती है जो एक स्त्री को भोग्या के अतिरिक्त कुछ ना समझता हो। उसकी निडरता, बेबाकी, आत्मोत्सर्ग की भावना स्त्री सशक्तिकरण का पथ प्रदर्शित करता है। 


सकीना 

उपन्यास में सकीना का चरित्र पाठकों के समक्ष उभरकर सामने नही आता है। उसके चरित्र को हम अमरकांत, सलीम और सुखदा के संदर्भ में ही पाते हैं। उसका स्वतंत्र अस्तित्व ना होने का कारण हम रूढ़िगत मान्यताओं को मान सकते है कि वह एक निम्न वर्गीय मुस्लिम समुदाय  से संबंध रखती है और माता पिता का साया ना होने के कारण उसकी दादी ही एकमात्र उसका आधार है। उसकी इज्जत ही दादी की एकमात्र जमा पूँजी है। उपन्यास में अमरकांत के प्रणय निवेदन करने से वह भी उसपर अपना  सर्वश्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाती है। वह पहली बार सामाजिक रूढ़ियों  का विरोध करते हुए नज़र आती हैं। वह अपनी दादी का भी त्याग कर देना चाहती है जिन्हें उनकी पोती की खुशी से ज्यादा समाज की परवाह होती है। 
अमरकांत यहाँ भी अपनी दुर्बलता का परिचय देकर सकीना को उसके हाल पर छोड़ कर चला जाता है।  अमरकांत के बाद सकीना की दुनिया में उमंग का लेशमात्र भी स्थान नही था। वह बीमार रहने लगी थी, एक दिन सुखदा उससे मिलने आती है। सुखदा को सकीना से सच्ची सहानुभूति थी। उससे बात कर सुखदा प्रेम के अर्थ को समझती है। सकीना कहती है "-" सभी ने मुझे दिल बहलाव की चीज़ समझा, और मेरी गरीबी से अपना मतलब निकालना चाहा । अगर किसी ने मुझे इज़्ज़त की निग़ाह से देखा, तो वह बाबूजी थे । " सकीना की बातों का सुखदा पर ऐसा असर हुआ कि सकीना के प्रति उसके सारे भ्रम दूर हो गए  । सकीना भी अमर के इंतज़ार में जीवन काटती है और जब सलीम सकीना से निकाह करने की इच्छा जाहिर करता है तो वह  तब भी उससे अमरकांत की राय लेने को कहती है। सकीना उपन्यास में एक ऐसे चरित्र के रूप में पाठकों के सम्मुख आती है जिसने ना केवल प्रेम की परिभाषा को सार्थक सिद्ध किया, अपितु सुखदा और अमरकांत के गृहस्थ जीवन को नई दिशा देने का कार्य करती है। 

   
                    ज्योति कुमारी


बुधवार, 23 जून 2021

प्रेमचंद के गबन उपन्यास की समीक्षा

 'गबन' पुस्तक समीक्षा 


उपन्यास - ग़बन  
लेखक - मुंशी प्रेमचंद
 प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान 
संस्करण - सन् 2017
 मूल्य - 125 ₹ 







'ग़बन' उपन्यास की समीक्षा के माध्यम से हम 'ग़बन'  उपन्यास की कथावस्तु, प्रमुख समस्याएं, उपन्यास की विशेषता व उद्देश्य , उपन्यास की भाषा शैली आदि पक्षों को देखते चलेंगे, साथ ही ग़बन उपन्यास के प्रमुख पात्रों की चर्चा करते हुए नायक व नायिका का चरित्रांकन करेंगे


💻TABLE OF CONTENT 

लेखक परिचय 

ग़बन मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक यथार्थवादी उपन्यास है। ग़बन उपन्यास 1931 में प्रकाशित हुई थी। 'निर्मला' उपन्यास के बाद प्रेमचंद जी ने इसकी रचना की है, एक तरह से यह निर्मला उपन्यास की अगली कड़ी  के रूप हिंदी संसार में कीर्तिमान स्थापित किये हुए है। गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, ग़बन, रंगभूमि, निर्मला आदि अनेक उपन्यास प्रेमचंद जी ने लिखें है। प्रेमचंद (1880-1936) जी का जन्म बनारस के लमही गाँव में हुआ था। 1910 में इन्होंने उर्दू में पहला कहानी संग्रह सोज़ेवतन नाम से प्रकाशित करवाया ।उर्दू लेखन नवाब राय से करते थे। हिंदी में प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद जी ने 300 से ज्यादा कहानियाँ लिखीं है। प्रेमचंद - विविध प्रसंग वैचारिक लेखों का संकलन है। 


ग़बन का अर्थ क्या होता है 

ग़बन अर्थात् चोरी। किसी की अमानत को हरपना। इस शब्द का प्रयोग विशेषकर सरकारी खज़ानों की चोरी के लिए प्रयुक्त होता है। आपने सुना होगा न्यूज़ में ख़बरें आती हैं फला व्यक्ति ने की  इतने रुपयों का ग़बन किया। यह वही शब्द है।

ग़बन उपन्यास की विशेषता उद्देश्य 


1. यह एक यथार्थवादी उपन्यास है अतएव यह जीवन की असलियत की छानबीन गहराई से करता है। 
2. समाज में व्याप्त भ्रम को दूरकर पाठक को नई प्रेरणा देता है।
3. नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा गया है। 
4. साथ ही इस समस्या को राष्ट्रीय आंदोलन  से जोड़ा गया है।
5. समाज में रहने वाला हर व्यक्ति चाहे वह निम्न वर्ग से सरोकार रखता हो, चाहे मध्य वर्ग से या चाहे उच्च वर्ग से यह उपन्यास सभी का मार्गदर्शन करता है।

ग़बन उपन्यास की प्रमुख समस्याएं


1.मध्य वर्गीय प्रदर्शनप्रियता 
2.स्त्रियों की आभूषणप्रियता
3. पुरुषों की अहं प्रवृत्ति
4. गृह कलह का पतन 
5. व्यक्ति का दुर्बल चरित्र 

ग़बन उपन्यास के पात्र 

ग़बन उपन्यास का नायक रमानाथ है और नायिका जालपा है। उपन्यास के पात्र निम्न हैं- 
रमानाथ ( नायक) 
जालपा ( नायिका) 
दीनदयाल ( जालपा के पिता) 
दयानाथ ( रमानाथ के पिता) 
रामेश्वरी ( रमानाथ की माँ) 
बिसाती वाला, मानकी, सराफ वाला, राधा, शहजादी, बासंती, महाजन, सत्यदेव, गोपी, विश्वम्भर, रमेश बाबू, चरणदास, धनीराम, रतन, इंद्रभूषण, माणिकदास, देवीदीन, जग्गो, सेठ करोड़ीमल आदि।

ग़बन उपन्यास की कथावस्तु 

ग़बन उपन्यास का आरंभ एक बिसाती वाले से होता है, जो चमकती धमकती चीज़ें दिखाता है। उस में एक चंदहार देखकर जालपा, जो अभी बच्ची ही थी अपनी माँ से जिद करने लगती है। उस वक्त माँ उसे मना कर देती है। पर जब दीन दयाल पत्नी के लिए चंद्रहार लाता है, तो जालपा गुस्सा हो जाती है। माँ के यह कहने पर की उसका हार तो ससुराल से आयेगा वह खुश हो जाती है, और यहीं से उपन्यास की आभूषण प्रियता की समस्या प्रारंभ होती है। 

उपन्यास का नायक रमानाथ जिसका परिवार मध्य वर्गीय प्रदर्शन प्रियता का शिकार है, उससे जालपा की शादी हो जाती है। किंतु जालपा को चंद्र हार से मतलब था पर उसे वो नही मिलता क्युंकि रमानाथ का परिवार समाज में दिखावे के जरिये  सम्मान पाना चाहते थे और इस कारण कर्जे में डूब जाते है। एक तो जालपा को चंद्रहार नही मिलता और दूसरे रमानाथ उसके बाकी गहने भी चुरा लेता है ताकि वह उससे कर्जा चुका सके। जालपा के सारे आभूषण चोरी हो जाने से वह बिल्कुल निष्प्राण हो जाती है। 
उसकी इस हालत को देख रमेश बाबू रमानाथ को एक अच्छी सरकारी नौकरी लगा देते है, जिससे वह अच्छी कमाई करने लगा। और बाद में उन सरकारी रुपयों को भी जालपा के गहने बनवाने में खर्च कर देता है। इस बीच जालपा की सहेली रतन के पैसे भी खर्च कर देता है। छोटी छोटी समस्या एक दिन उसके लिए इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे अपना घर छोड़ कलकत्ता आना पड़ता है। और यहाँ उसकी जिंदगी का नया अध्याय प्रारंभ होता है। 

ट्रेन में उसकी मुलाकात देवीदीन से होती है। और उसीके घर वह रहने लगता है। गिरफ्तारी का डर भी उसे सताता है। अपने डर के कारण वह पुलिस वालों के नज़र में आ जाता है। और ग़बन का इलज़ाम कुबूल करता है। पर पुलिस वाले तो उसे यूँ ही उठा कर लाते है। और उसे इस इल्ज़ाम से बचने के लिए पुलिस वाले उसे एक केस में मुखबिर बनने को कहा जाता है। उस केस में पुलिस स्वतंत्रता सेनानियों को झूठी डकैती के मामले में फंसाकर अपने तौर पर स्वाधीनता आंदोलन का दमन करना चाहती है। यहीं रमानाथ की मुलाकात जोहरा से होती है। वहाँ उसका नैतिक पतन होता है। 

बाद में वहाँ जालपा भी आती है उसे ढूँढते हुए और उसके बुरे कर्मो को वो अपने श्रम से मिटाना चाहती है। उपन्यास का अंत दुखान्त है क्युंकि जोहरा जिसने रमानाथ के प्रति अपने सच्चे प्रेम का परिचय दिया, जिसने जालपा के साथ मिलकर रमानाथ को छुड़ाने में मदद की थी, उसकी मृत्यु हो जाती है। 

कुल मिलाकर यह उपन्यास स्त्री के आभूषण प्रियता से आरंभ होकर उसके त्याग व बलिदान की आत्मवेदी पर समाप्त हो जाती है।

ग़बन उपन्यास की भाषा शैली

ग़बन उपन्यास की भाषा स्पष्ट एवं सहज है। प्रेमचंद की भाषा की विशेषता यह है कि इनकी भाषा पात्रानुकूल है। शहरी पात्र की भाषा अलग और ग्रामीणों की अलग। शिक्षित और अशिक्षित पात्रों की पहचान इनकी भाषा शैली से ही पता चल जाता है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने भाषा को यथार्थ के धरातल पर उतारा है। सभी पात्र अपनी मनोदशा व परिस्थिति अनुकूल ही वार्तालाप करते है। 

ग़बन उपन्यास में पात्र योजना 

ग़बन एक चरित्र प्रधान उपन्यास है और इसका मुख्य धरातल मनोविज्ञान है। प्रेमचंद ग़बन उपन्यास के पात्रों की योजना इस प्रकार करते है, कि उनके पात्र अलग अलग व्यक्तित्व का प्रतिनिधि बनकर पाठकों के मन में अमिट छाप छोड़ देते है। ग़बन उपन्यास मध्यवर्ग के पतनोन्मुख व उन्नतिशील दोनों पहलुओं को उजागर करती है। प्रेमचंद ने इसमें उपन्यास की दृष्टि से पात्रों की संख्या उतनी ही रखी है जितने में ये कथावस्तु को विस्तार दे सकें और समाज के हर तबके के लोगों के चरित्र को उभार सकें। अधिक पात्रों की संख्या कभी कभी कथावस्तु को समझने में बाधा पहुँचाते है।
            उपन्यास के पात्रों के माध्यम से प्रेमचंद यथार्थ पात्रों की सृष्टि करते है। ऐसे पात्र जो समाज में आज भी अपनी चारित्रिक प्रवृत्तियों के कारण बने हुए है। जालपा के माध्यम से एक ऐसी स्त्री का चित्रण करते है जिसने अपने जीवन में पति से ज्यादा आभूषणों को महत्व दिया। और उसके कारण ही रमानाथ एक के बाद एक अपराध करता चला गया। रमानाथ के माध्यम से ऐसे अहमवादी पुरुष का चित्र खींचते है, जो पत्नी के सामने बड़ी बड़ी बातें करता है। पर पीठ पीछे उसी के गहने चोरी कर अपने पिता को देता है। अपनी पत्नी को अपनी आर्थिक विवशता बताने के बजाय उसे प्रभावित करने हेतु उधार पर गहने ले आता है।
           दयानाथ के माध्यम से ऐसे पिता का चित्र प्रस्तुत करते है जो समाज में दिखावे की जिंदगी जीते है, रमानाथ की शादी में भी जरूरत से ज्यादा खर्च होने पर कर्ज का बोझ आ जाता है, और उसकी भरपाई वे बहु के गहने देकर चुकाते है। यहाँ भी वे एक ऐसे पिता के रूप में प्रस्तुत होते है जिसे अपने बेटे को बहु के गहने चुराने पर डाँटना चाहिए पर वो ऐसा नही करते और स्वयं उस पाप में भागीदार बन जाते है। जोहरा का चरित्र समाज के ऐसे वर्ग को प्रस्तुत करता है जिसे लोग निकृष्ट कोटि का काम करनेवाले लोगों की श्रेणि में खड़े कर देते है। पर वही जोहरा अपने प्राणों की परवाह किये बग़ैर ही रमानाथ को उस जंजाल से मुक्त कराती है। उपन्यास में ऐसे पात्र भरे हुए है जो अपनी चरित्रगत विशेषता द्वारा पाठकों को संदेश देते है और उनका मार्गदर्शन भी करते है।
        निष्कर्षतः ग़बन उपन्यास के पात्रों की योजना प्रेमचन्द जी ने बहुत विचार कर ही किया है। हर पात्र अपने चरित्र को बखूबी निभाता भी है। और समाज में सकरात्मक प्रभाव भी डालता है। 
               
                                          ज्योति कुमारी 






बुधवार, 16 जून 2021

दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संग्रह 'सायें में धूप'


पुस्तक समीक्षा 


 पुस्तक - सायें में धूप ( ग़ज़लों का संग्रह) 
लेखक - दुष्यंत कुमार
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य - 95₹ 
पहला संस्करण - 1975
चौसठवाँ संस्करण - 2016 


💻TABLE OF CONTENT

 

लेखक परिचय 

       हिंदी संसार में दुष्यंत कुमार एक ग़ज़ल कवि के रूप में विख्यात है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील निज़ाबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। इनके पिता का नाम चौधरी भगवतसहाय और माँ का नाम राजकिशोरी देवी था। दुष्यंत कुमार का पुरा नाम दुष्यंत नारायण सिंह त्यागी था। आरंभिक कविताएँ वे 'विकल' उपनाम से लिखा करते थे। अपनी प्रसिद्ध कृति 'सायें में धूप' संग्रह को वे अपने छोटे भाई मुन्नू जी अर्थात् प्रेम नारायण सिंह त्यागी को समर्पित करते है। 

              

लेखक की भाषा   

दुष्यंत जी अपनी ग़ज़लों में जिस भाषा का प्रयोग करते है, उससे उर्दू के कुछ दोस्तों को ऐतराज है। क्युंकि उनकी भाषा ना तो पूर्णतः उर्दू है, ना पूर्णतः हिंदी। प्रेमचं की भाषा में कहूं तो वह हिंदुस्तानी भाषा है। दुष्यंत जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह उर्दू ही है जो हिंदी में घुल-मिल गई है। 'सायें में धूप ' संग्रह की भूमिका में वे लिखते है - " कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नियत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा करीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़ले उस भाषा में कही गई है, जिसे मैं बोलता हूँ। "

                  

सायें में धूप पुस्तक के बारे में  

          'सायें में धूप ' संग्रह में दुष्यंत कुमार द्वारा रचित कुल 52 ग़ज़लों को संकलित किया गया है। इन सभी ग़ज़लों की खासियत यह है कि ये  विभिन्न विषयों को केंद्र में रख कर लिखे गए है। दुष्यंत जी को इसकी प्रेरणा कवि मिर्ज़ा ग़ालिब से मिली थी। ग़ालिब अपनी व्यक्तिगत दुःख को ग़ज़ल के माध्यम से ही लोगों के साथ साँझा करते थे। और चूंकि दुष्यंत जी का दुःख ग़ालिब से इस अर्थ में ज्यादा था कि उनका दुःख केवल निजी ना होकर, सामाजिक भी था । फिर चाहे वो प्रेम में असफल हुए व्यक्ति का दुःख हो या सरकार की दुहरी राजनीति से त्रस्त आम जनता का दुःख हो।

      

सायें में धूप के ग़ज़लों में वर्णित विषय 

      दुष्यंत जी ने राजनीतिक व्यवस्था पर भी व्यंग्य किया है। 'सायें में धूप' संग्रह में संकलित पहला ग़ज़ल इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है- 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए , 

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। 

यहाँ दरख़्तों के सायें में धूप लगती है, 

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। 

ना हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, 

ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, 

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए। 

तेरा निजाम है सिल दे ज़ुबान शायर को, 

ये एहतियात ज़रूरी है इस बसर के लिए। 

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, 

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

                                                  (पृष्ठ सं-13) 

                   आज़ादी के बाद देश में जिस उद्देश्य हेतु राजनीति व्यवस्था का निर्माण हुआ उसका स्वरूप ही विकृत होता चला गया। सरकार की क्रूर नीतियों को देखते हुए दुष्यंत जी ग़ज़ल के माध्यम से उनपर करारा व्यंग्य करते है साथ ही लोगों में नई क्रांतिकारी चेतना का संचार करते है। सरकार की राजनीति पर प्रहार करती उनकी एक और ग़ज़ल मुझे बहुत सटीक लगी । 

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, 

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। 

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह, 

ज़िंदगी ने जब छुआ तब फ़ासला रखकर छुआ। 

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं, 

पेट भरकर गालियाँ दो, आह भरकर बद्दुआ। 

क्या वजह है प्यास ज़्यादा तेज़ लगती है यहाँ, 

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआँ। 

आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को, 

आपके भी खून का रंग हो गया है साँवला। 

इस अँगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,

 जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुँआ। 

दोस्त, अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा ना हो, 

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ। 

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

ब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।

                                                        (पृष्ठ सं-21) 

                इस पुस्तक में ऐसी तमाम ग़ज़ले है जिसे लोग मिशाल के तौर पर भी प्रयोग में लाते है। जैसे

 हो गयी है पीर पर्वत सी निकलनी चाहिए, 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

आज यह दीवार, पर्दों की तरह हिलने लगी, 

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 

                                                         ( पृष्ठ सं-30) 

            इन ग़ज़लों को पढ़कर अन्य ग़ज़लों के प्रति भी आपका रुझान बढ़ता जायेगा। हर ग़ज़ल का अपना ही महत्व है। आप जब उन ग़ज़लों को ध्यान से पढ़ेंगे तो स्वयं ही उसके उद्देश्य से परिचित हो जायेंगे। जैसे उनके इस ग़ज़ल में उनकी आशावादी दृष्टिकोण का परिचय मिलता है।

 इस नदी की धार में ठंडी  हवा आती तो है, 

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। 

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों, 

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है। 

एक खंडहर के हृदय सी, एक जंगल फूल सी, 

आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है। 

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, 

यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। 

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, 

पत्थरों से, ओट में जो जाके बतियाती तो है। 

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, 

और कुछ हो या न हो, आकाश सी छाती तो है।

                                                   (पृष्ठ सं-16) 

                

                     दुष्यंत जी की प्रेम में पगी हुई ग़ज़लों को पढ़कर मन मानो कल्पना लोक में विचरने लगता है। शब्दों का विधान ही ऐसा है की हम उस प्रवाह में बहने से खुद को रोक नही पाते है। इन ग़ज़लों को पढ़कर आप को भी ऐसी ही अनुभूति होगी। 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, 

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ। 

एक जंगल है तेरी आँखों में, 

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ। 

तू किसी रेल सी गुज़रती है, 

मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। 

हर तरफ़ एतराज़ होता है, 

मैं अगर रोशनी में आता हूँ। 

एक बाजू उखड़ गया जब से, 

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ। 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में, 

आज कितने करीब पाता हूँ। 

कौन ये फ़ासला निभाएगा, 

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।(पृष्ठ सं-62) 

               

              इस ग़ज़ल में छिपे विरहानुभूति को एक सहृदय ही समझ सकता है। दुष्यंत कुमार अपने व्यक्तिगत तकलीफ़ों  को भी ग़ज़ल के माध्यम से ही पाठक वर्ग तक पहुँचाते है। इनकी ग़ज़लों में व्यक्त विचार मनुष्य को जागरूक व संवेदनशील बनाती है। 


मुझे यह पुस्तक क्यूँ पसंद है    

           'सायें में धूप' पुस्तक को जब मैंने पढ़ना प्रारंभ किया तो मेरे अंदर एक के बाद दूसरी और दूसरे से तीसरी ग़ज़ल को पढ़ने की इच्छा अपने आप होने लगी । इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह आपको ग़ज़लों के क्रम से बाँधे रखती है। और धीरे धीरे आप में इतनी रुचि पैदा कर देती है कि आप आसानी से इसे एक बैठक में ही समाप्त कर सकते है। 

                                   ज्योति कुमारी








बुधवार, 9 जून 2021

पायदान : एक डिस्टर्बिन्ग उपन्यासिका






उपन्यास - पायदान

 लेखिका - सोना चौधरी  

प्रकाशक - इतिहास बोध 

कीमत - 45 ₹ 

 प्रथम संस्करण - जून 2002 

 तृतीय संस्करण - जनवरी 2005 




  💻  TABLE OF CONTENT

 लेखिका का परिचय     

 

            युवा लेखिका सोना चौधरी का हिंदी संसार में पदार्पण नारी विमर्श को नई दिशा ले जाने हेतु हुआ है। उनकी पहली कृति 'पायदान'  नारी के प्रति पुरुषों की दुषित मनोवृत्ति को यथार्थ रूप में सामने लाती है। सोना चौधरी की अब तक तीन रचनाएँ - पायदान , विचित्र और गेम इन गेम प्रकाशित हुई हैं। लेखिका स्वयं राष्ट्रीय स्तर की फुटबॉल खिलाड़ी रह चुकी है। इन क्षेत्रों की विसंगतियों का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है, और उन विसंगतियों लेखिका ने  को अपनी रचनाओं में उजागर भी किया है। 


         उपन्यास की विशेषता 


                   जून 2002 में प्रथम प्रकाशन से पायदान लगातार चर्चा में रहा है। दूसरे संस्करण में प्रसिद्ध उपन्यासकर मैत्रेयी पुष्पा की लंबी टिप्पणी भी आखिर में शामिल की गयी| मैत्रेयी पुष्पा लिखती है- " स्त्री का मर्दों के क्षेत्र में दस्तक देना अपने हाथ कटा लेने और पांव बांध देने की सजा का भागी है, आगे आकर बचा लेने वाला भी कोई कहाँ है ? सोना चौधरी ने इस दुभाग्यपूर्ण सच्चाई को खोलते हुए अपनी कहानी को बेबाक तरीके से कहा है। पायदान एक डिस्टर्बिन्ग उपन्यासिका है। "
                    उपन्यास के पहले पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियाँ समाज के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करती है। 

"जैसे ही लड़की 
कुछ नया करना चाहती है,
अकेली पड़ जाती है
वरना लोग साथ देते हैं 
 एक देवी का
एक सती का 
एक रंडी का "


उपन्यास की कथावस्तु       

          

          पायदान उपन्यास एक लड़की के कशिश, आँचल और अंत में आस्था बन जाने की कहानी है। इस प्रक्रिया में उसे मर्दवादी सत्ता का सामना करना पड़ता है। अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी जीना या निर्णय लेने के लिए उसे अपने अस्तित्व को खोना पड़ता है। समाज की दकियानुसी सोच द्वारा निर्मित विभिन्न पायदानों को चुनना पड़ता है। अपनी प्रसिद्धि व कीर्तिमान स्थापित करने हेतु उसे परिवारिक विरोध और सामाजिक तिरस्कार की शुरुआती पायदानों से गुजरना पड़ता है। फिर श्रम और यौन शोषण की पायदानें उसके हौसले को डगमगाती है। 
            

          लेखिका के शब्दों में - " किस्सा बस उस लड़की का जो अकेली भी निकलना चाहती है। अकेली, अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई जिंदगी के पड़ावों से निकलकर न जाने कहाँ कहाँ पहुँचने को आमादा हो जाती है। हैवानों का संग साथ, अंजानों की आत्मीयता, बड़े कहे जाने वालों की दुष्टता, शरीफजादों की बदनीयत। संवेदन की छाँव, दुराव और तिरस्कार की धूप । निराशा की बदलियां और उम्मीद की किरणें। तरह तरह के लोग और अंत में लब्बोलुबाव यह कि इंसान के, उसके व्यवहार के तौर तरीके बदलते जाते हैं, दुनिया बदलती जाती है। " 
             
        उपन्यास की कथावस्तु मूलतः स्त्री शोषण पर केंद्रित है, जिसकी शुरुआत लेखिका के घर से ही होती है। बचपन में चाचा और उसके दोस्तों द्वारा किए गए दुष्कर्म के कारण लेखिका व उसकी बहन के मन में परिवारिक असुरक्षा का भय उत्पन्न होता है। यह घटना लेखिका को अंदर से झकझोर देती है। फुटबॉल की चाहत के कारण उसे अपनी जिंदगी में इस शोषण का नया अध्याय देखने को मिलता है, जो लेखिका के मन-मस्तिष्क को गहरे रूप से प्रभावित करता है। परिवार की जिम्मेदारी व आत्मनिर्भर बनने की इस दौर में कोच, अध्यक्ष, मैनेजर, मेजर, डॉक्टर, बॉस, भोंसले आदि कितने ही पुरूषों से लेखिका का सामना हुआ जो ना केवल उसके शरीर को नोच खसोट लेना चाहते थे, अपितु पुरूषवादी सत्ता के समक्ष खड़े होने की उसकी हिम्मत को भी तोड़ देना चाहते थे। लेखिका अंत तक अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयत्न करती रही, पर मौकापरस्त पुरूष समाज उसे परिस्तिथियों से समझौता करने पर विवश कर देते है। फुटबॉल के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाने की इच्छा, अपनी अलग पहचान बनाने का सपना सब टूट जाता है। इस स्वार्थ लोलुप व कामुक पुरूष सत्ता के आगे लेखिका की आस्था डगमगा जाती है। उसके सपने अधूरे रह जाते हैं, साथ ही उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। और लड़खड़ाते कदमों से लेखिका वापस घर को लौट आती है। 
                यह उपन्यास कोई क्यूँ पढें

         यह उपन्यास सच में हिंदी के नारी विमर्श साहित्य में प्रसिद्धि पाने का अधिकारी है। लेखिका सोना चौधरी के विषय में इतना ही कहूंगी कि इस तरह के उपन्यास लिखने के लिए जिस बेबाकी की जरूरत है, वह उनमें विद्यमान है। जिस निर्भिकता से वे इस क्षेत्र की विसंगतियों का चित्रण करती है, वह सराहनीय है। लेखिका जानती थीं कि  इस उपन्यास से  समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके बावजूद भी उन्होंने ये उपन्यास लिखा। लेखिका के शब्दों में स्वयं उनके घरवाले उनके द्वारा लिखी किताबों को बक्से में बंद कर रखते है, क्युंकि समाज सच में ऐसे उपन्यासों की सच्चाई स्वीकार नहीं कर पाता है, और विरोध में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है। ये रचनाएँ कपोलकल्पित नहीं  है, वास्तविक जीवन से सरोकार रखने वाली है। अतएव समाज को निष्पक्ष होकर इन विमर्शों पर विचार करना चाहिए।
                                                          
                                                      ज्योति कुमारी


शुक्रवार, 28 मई 2021

हिंदी पत्रकारिता दिवस - 30 मई



मीडिया : सरोकार या कारोबार

        



          हिंदी पत्रकारिता दिवस हर वर्ष 30 मई को मनाया जाता है। 30 मई 1826 को पंडित जुगल किशोर जी ने कलकत्ता से हिंदी का पहला समाचार पत्र निकाला था। यह हिंदी का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र था। पत्रकारिता की शुरूआत जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हुआ था, उसका स्वरूप धीरे धीरे विकृत होता जा रहा है। आज हम  पत्रकारिता के विविध अंगों में से मीडिया के स्वरूप व उसकी भूमिका की चर्चा करेंगे।


    " पत्रकारिता का एकमात्र लक्ष्य सेवा होना चाहिए। अखबारी प्रेस एक बड़ी ताकत है। लेकिन जैसे अनियंत्रित जल प्रवाह में गांव के गांव डूब जाते हैं,फसलें बर्बाद हो जाती हैं,उसी तरह अनियंत्रित लेखनी सेवा करने की बजाय विध्वंस लाने का काम करती है। "- महात्मा गॉंधी



        मीडिया पत्रकारिता का एक सशक्त माध्यम है, जिसका कार्य लोगों तक तथ्यपूर्ण सूचना पहुँचना है। पत्रकारिता  भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। मीडिया इसी का हिस्सा होने के कारण संविधान के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी  प्रसिद्धि बनाये हुए है। सरकार के कार्यो का सही लेखा-जोखा जनता तक पहुँचना ,लोगों में नई चेतना का संचार करना व सही मार्गदर्शन करना आदि मीडिया के कर्तव्यों के अंतर्गत आता है। परंतु आज मीडिया अपनी भूमिका का निर्वहन करने में विफल रही  है , उसके माध्यम से लोगों पर नकारात्मक प्रभाव फैल रहा है। देश में बढ़ते दंगे को रोकने के बजाय, वह उसे धर्म और राजनीति के तराजू पर तोलने लगी है। इससे समाज में मीडिया का जो रूप सामने आता है वह पथ प्रदर्शक का तो नहीं लगता है।

          

           किसी भी घटना को सबसे पहले प्रस्तुत करने की होड़ में  वह तथ्यों को पीछे छोड़ कल्पना शक्ति के आधार पर निर्णय ले लेती है। और जनता की नज़रों में भी उसे दोषी ठहरा दिया जाता है। वह स्वयं न्यायधीश के पद पर आसीन हो जाती है। अपने कर्तव्यों के प्रति मीडिया या तो सजग नहीं है, या फिर  वह अपने को श्रेष्ठ समझने लगी है। आज मीडिया को समाज की परिस्थितियों से सरोकार नही है,उसे सरोकार है टीआरपी से, प्रसिद्धि से । आज न्यूज़ नहीं न्यूज़ प्रोग्रामस् दिखाये जा रहे है। दिन भर की बहस में क्या नतीजा निकलता है? 

       

              आधुनिक  मिडिया  पीत पत्रकारिता के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ती हुई नज़र आती है। सनसनी फैलाने वाले खबरों को तवज्जो देना, सत्तारूढ़ दल का महिमामंडन करना घटनाओं को द्विअर्थी रूप देना आदि अनुचित कार्य मीडिया द्वारा किये जा रहे है। यहाँ किसी मीडिया विशेष या सत्ता विशेष की बात नहीं की जा रही है। मीडिया का कार्य समाज में संतुलन व व्यवस्था बनाना है। लोगों पर सकरात्मक प्रभाव डालना है। सरकार के कार्यों का मूल्यांकन कर जनता को जागरूक करना है।लोगों को दिग्भ्रमित करना मीडिया का कार्य नही है। दुष्यंत कुमार की पंक्तियों द्वारा मैं मीडिया के प्रति अपने विचारों का मंतव्य स्पष्ट करना चाहूँगी - 

 

"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नही

सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही 

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। "

                                   -  ज्योति कुमारी 

  वैधव्य का शाप  हाँ मैंने एक स्त्री को विधवा होते देखा  अभी कल की बात थी ,  जब मैंने उसकी हँसी बगल वाले घर के आँगन में सुनी थी  पर आज वो हँ...