बुधवार, 16 जून 2021

दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संग्रह 'सायें में धूप'


पुस्तक समीक्षा 


 पुस्तक - सायें में धूप ( ग़ज़लों का संग्रह) 
लेखक - दुष्यंत कुमार
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य - 95₹ 
पहला संस्करण - 1975
चौसठवाँ संस्करण - 2016 


💻TABLE OF CONTENT

 

लेखक परिचय 

       हिंदी संसार में दुष्यंत कुमार एक ग़ज़ल कवि के रूप में विख्यात है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील निज़ाबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। इनके पिता का नाम चौधरी भगवतसहाय और माँ का नाम राजकिशोरी देवी था। दुष्यंत कुमार का पुरा नाम दुष्यंत नारायण सिंह त्यागी था। आरंभिक कविताएँ वे 'विकल' उपनाम से लिखा करते थे। अपनी प्रसिद्ध कृति 'सायें में धूप' संग्रह को वे अपने छोटे भाई मुन्नू जी अर्थात् प्रेम नारायण सिंह त्यागी को समर्पित करते है। 

              

लेखक की भाषा   

दुष्यंत जी अपनी ग़ज़लों में जिस भाषा का प्रयोग करते है, उससे उर्दू के कुछ दोस्तों को ऐतराज है। क्युंकि उनकी भाषा ना तो पूर्णतः उर्दू है, ना पूर्णतः हिंदी। प्रेमचं की भाषा में कहूं तो वह हिंदुस्तानी भाषा है। दुष्यंत जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह उर्दू ही है जो हिंदी में घुल-मिल गई है। 'सायें में धूप ' संग्रह की भूमिका में वे लिखते है - " कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नियत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा करीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़ले उस भाषा में कही गई है, जिसे मैं बोलता हूँ। "

                  

सायें में धूप पुस्तक के बारे में  

          'सायें में धूप ' संग्रह में दुष्यंत कुमार द्वारा रचित कुल 52 ग़ज़लों को संकलित किया गया है। इन सभी ग़ज़लों की खासियत यह है कि ये  विभिन्न विषयों को केंद्र में रख कर लिखे गए है। दुष्यंत जी को इसकी प्रेरणा कवि मिर्ज़ा ग़ालिब से मिली थी। ग़ालिब अपनी व्यक्तिगत दुःख को ग़ज़ल के माध्यम से ही लोगों के साथ साँझा करते थे। और चूंकि दुष्यंत जी का दुःख ग़ालिब से इस अर्थ में ज्यादा था कि उनका दुःख केवल निजी ना होकर, सामाजिक भी था । फिर चाहे वो प्रेम में असफल हुए व्यक्ति का दुःख हो या सरकार की दुहरी राजनीति से त्रस्त आम जनता का दुःख हो।

      

सायें में धूप के ग़ज़लों में वर्णित विषय 

      दुष्यंत जी ने राजनीतिक व्यवस्था पर भी व्यंग्य किया है। 'सायें में धूप' संग्रह में संकलित पहला ग़ज़ल इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है- 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए , 

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। 

यहाँ दरख़्तों के सायें में धूप लगती है, 

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। 

ना हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, 

ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, 

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए। 

तेरा निजाम है सिल दे ज़ुबान शायर को, 

ये एहतियात ज़रूरी है इस बसर के लिए। 

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, 

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

                                                  (पृष्ठ सं-13) 

                   आज़ादी के बाद देश में जिस उद्देश्य हेतु राजनीति व्यवस्था का निर्माण हुआ उसका स्वरूप ही विकृत होता चला गया। सरकार की क्रूर नीतियों को देखते हुए दुष्यंत जी ग़ज़ल के माध्यम से उनपर करारा व्यंग्य करते है साथ ही लोगों में नई क्रांतिकारी चेतना का संचार करते है। सरकार की राजनीति पर प्रहार करती उनकी एक और ग़ज़ल मुझे बहुत सटीक लगी । 

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, 

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। 

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह, 

ज़िंदगी ने जब छुआ तब फ़ासला रखकर छुआ। 

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं, 

पेट भरकर गालियाँ दो, आह भरकर बद्दुआ। 

क्या वजह है प्यास ज़्यादा तेज़ लगती है यहाँ, 

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआँ। 

आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को, 

आपके भी खून का रंग हो गया है साँवला। 

इस अँगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,

 जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुँआ। 

दोस्त, अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा ना हो, 

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ। 

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

ब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।

                                                        (पृष्ठ सं-21) 

                इस पुस्तक में ऐसी तमाम ग़ज़ले है जिसे लोग मिशाल के तौर पर भी प्रयोग में लाते है। जैसे

 हो गयी है पीर पर्वत सी निकलनी चाहिए, 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

आज यह दीवार, पर्दों की तरह हिलने लगी, 

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 

                                                         ( पृष्ठ सं-30) 

            इन ग़ज़लों को पढ़कर अन्य ग़ज़लों के प्रति भी आपका रुझान बढ़ता जायेगा। हर ग़ज़ल का अपना ही महत्व है। आप जब उन ग़ज़लों को ध्यान से पढ़ेंगे तो स्वयं ही उसके उद्देश्य से परिचित हो जायेंगे। जैसे उनके इस ग़ज़ल में उनकी आशावादी दृष्टिकोण का परिचय मिलता है।

 इस नदी की धार में ठंडी  हवा आती तो है, 

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। 

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों, 

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है। 

एक खंडहर के हृदय सी, एक जंगल फूल सी, 

आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है। 

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, 

यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। 

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, 

पत्थरों से, ओट में जो जाके बतियाती तो है। 

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, 

और कुछ हो या न हो, आकाश सी छाती तो है।

                                                   (पृष्ठ सं-16) 

                

                     दुष्यंत जी की प्रेम में पगी हुई ग़ज़लों को पढ़कर मन मानो कल्पना लोक में विचरने लगता है। शब्दों का विधान ही ऐसा है की हम उस प्रवाह में बहने से खुद को रोक नही पाते है। इन ग़ज़लों को पढ़कर आप को भी ऐसी ही अनुभूति होगी। 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, 

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ। 

एक जंगल है तेरी आँखों में, 

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ। 

तू किसी रेल सी गुज़रती है, 

मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। 

हर तरफ़ एतराज़ होता है, 

मैं अगर रोशनी में आता हूँ। 

एक बाजू उखड़ गया जब से, 

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ। 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में, 

आज कितने करीब पाता हूँ। 

कौन ये फ़ासला निभाएगा, 

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।(पृष्ठ सं-62) 

               

              इस ग़ज़ल में छिपे विरहानुभूति को एक सहृदय ही समझ सकता है। दुष्यंत कुमार अपने व्यक्तिगत तकलीफ़ों  को भी ग़ज़ल के माध्यम से ही पाठक वर्ग तक पहुँचाते है। इनकी ग़ज़लों में व्यक्त विचार मनुष्य को जागरूक व संवेदनशील बनाती है। 


मुझे यह पुस्तक क्यूँ पसंद है    

           'सायें में धूप' पुस्तक को जब मैंने पढ़ना प्रारंभ किया तो मेरे अंदर एक के बाद दूसरी और दूसरे से तीसरी ग़ज़ल को पढ़ने की इच्छा अपने आप होने लगी । इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह आपको ग़ज़लों के क्रम से बाँधे रखती है। और धीरे धीरे आप में इतनी रुचि पैदा कर देती है कि आप आसानी से इसे एक बैठक में ही समाप्त कर सकते है। 

                                   ज्योति कुमारी








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