बुधवार, 23 जून 2021

प्रेमचंद के गबन उपन्यास की समीक्षा

 'गबन' पुस्तक समीक्षा 


उपन्यास - ग़बन  
लेखक - मुंशी प्रेमचंद
 प्रकाशक - प्रकाशन संस्थान 
संस्करण - सन् 2017
 मूल्य - 125 ₹ 







'ग़बन' उपन्यास की समीक्षा के माध्यम से हम 'ग़बन'  उपन्यास की कथावस्तु, प्रमुख समस्याएं, उपन्यास की विशेषता व उद्देश्य , उपन्यास की भाषा शैली आदि पक्षों को देखते चलेंगे, साथ ही ग़बन उपन्यास के प्रमुख पात्रों की चर्चा करते हुए नायक व नायिका का चरित्रांकन करेंगे


💻TABLE OF CONTENT 

लेखक परिचय 

ग़बन मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित एक यथार्थवादी उपन्यास है। ग़बन उपन्यास 1931 में प्रकाशित हुई थी। 'निर्मला' उपन्यास के बाद प्रेमचंद जी ने इसकी रचना की है, एक तरह से यह निर्मला उपन्यास की अगली कड़ी  के रूप हिंदी संसार में कीर्तिमान स्थापित किये हुए है। गोदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, ग़बन, रंगभूमि, निर्मला आदि अनेक उपन्यास प्रेमचंद जी ने लिखें है। प्रेमचंद (1880-1936) जी का जन्म बनारस के लमही गाँव में हुआ था। 1910 में इन्होंने उर्दू में पहला कहानी संग्रह सोज़ेवतन नाम से प्रकाशित करवाया ।उर्दू लेखन नवाब राय से करते थे। हिंदी में प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद जी ने 300 से ज्यादा कहानियाँ लिखीं है। प्रेमचंद - विविध प्रसंग वैचारिक लेखों का संकलन है। 


ग़बन का अर्थ क्या होता है 

ग़बन अर्थात् चोरी। किसी की अमानत को हरपना। इस शब्द का प्रयोग विशेषकर सरकारी खज़ानों की चोरी के लिए प्रयुक्त होता है। आपने सुना होगा न्यूज़ में ख़बरें आती हैं फला व्यक्ति ने की  इतने रुपयों का ग़बन किया। यह वही शब्द है।

ग़बन उपन्यास की विशेषता उद्देश्य 


1. यह एक यथार्थवादी उपन्यास है अतएव यह जीवन की असलियत की छानबीन गहराई से करता है। 
2. समाज में व्याप्त भ्रम को दूरकर पाठक को नई प्रेरणा देता है।
3. नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा गया है। 
4. साथ ही इस समस्या को राष्ट्रीय आंदोलन  से जोड़ा गया है।
5. समाज में रहने वाला हर व्यक्ति चाहे वह निम्न वर्ग से सरोकार रखता हो, चाहे मध्य वर्ग से या चाहे उच्च वर्ग से यह उपन्यास सभी का मार्गदर्शन करता है।

ग़बन उपन्यास की प्रमुख समस्याएं


1.मध्य वर्गीय प्रदर्शनप्रियता 
2.स्त्रियों की आभूषणप्रियता
3. पुरुषों की अहं प्रवृत्ति
4. गृह कलह का पतन 
5. व्यक्ति का दुर्बल चरित्र 

ग़बन उपन्यास के पात्र 

ग़बन उपन्यास का नायक रमानाथ है और नायिका जालपा है। उपन्यास के पात्र निम्न हैं- 
रमानाथ ( नायक) 
जालपा ( नायिका) 
दीनदयाल ( जालपा के पिता) 
दयानाथ ( रमानाथ के पिता) 
रामेश्वरी ( रमानाथ की माँ) 
बिसाती वाला, मानकी, सराफ वाला, राधा, शहजादी, बासंती, महाजन, सत्यदेव, गोपी, विश्वम्भर, रमेश बाबू, चरणदास, धनीराम, रतन, इंद्रभूषण, माणिकदास, देवीदीन, जग्गो, सेठ करोड़ीमल आदि।

ग़बन उपन्यास की कथावस्तु 

ग़बन उपन्यास का आरंभ एक बिसाती वाले से होता है, जो चमकती धमकती चीज़ें दिखाता है। उस में एक चंदहार देखकर जालपा, जो अभी बच्ची ही थी अपनी माँ से जिद करने लगती है। उस वक्त माँ उसे मना कर देती है। पर जब दीन दयाल पत्नी के लिए चंद्रहार लाता है, तो जालपा गुस्सा हो जाती है। माँ के यह कहने पर की उसका हार तो ससुराल से आयेगा वह खुश हो जाती है, और यहीं से उपन्यास की आभूषण प्रियता की समस्या प्रारंभ होती है। 

उपन्यास का नायक रमानाथ जिसका परिवार मध्य वर्गीय प्रदर्शन प्रियता का शिकार है, उससे जालपा की शादी हो जाती है। किंतु जालपा को चंद्र हार से मतलब था पर उसे वो नही मिलता क्युंकि रमानाथ का परिवार समाज में दिखावे के जरिये  सम्मान पाना चाहते थे और इस कारण कर्जे में डूब जाते है। एक तो जालपा को चंद्रहार नही मिलता और दूसरे रमानाथ उसके बाकी गहने भी चुरा लेता है ताकि वह उससे कर्जा चुका सके। जालपा के सारे आभूषण चोरी हो जाने से वह बिल्कुल निष्प्राण हो जाती है। 
उसकी इस हालत को देख रमेश बाबू रमानाथ को एक अच्छी सरकारी नौकरी लगा देते है, जिससे वह अच्छी कमाई करने लगा। और बाद में उन सरकारी रुपयों को भी जालपा के गहने बनवाने में खर्च कर देता है। इस बीच जालपा की सहेली रतन के पैसे भी खर्च कर देता है। छोटी छोटी समस्या एक दिन उसके लिए इतनी बड़ी हो जाती है कि उसे अपना घर छोड़ कलकत्ता आना पड़ता है। और यहाँ उसकी जिंदगी का नया अध्याय प्रारंभ होता है। 

ट्रेन में उसकी मुलाकात देवीदीन से होती है। और उसीके घर वह रहने लगता है। गिरफ्तारी का डर भी उसे सताता है। अपने डर के कारण वह पुलिस वालों के नज़र में आ जाता है। और ग़बन का इलज़ाम कुबूल करता है। पर पुलिस वाले तो उसे यूँ ही उठा कर लाते है। और उसे इस इल्ज़ाम से बचने के लिए पुलिस वाले उसे एक केस में मुखबिर बनने को कहा जाता है। उस केस में पुलिस स्वतंत्रता सेनानियों को झूठी डकैती के मामले में फंसाकर अपने तौर पर स्वाधीनता आंदोलन का दमन करना चाहती है। यहीं रमानाथ की मुलाकात जोहरा से होती है। वहाँ उसका नैतिक पतन होता है। 

बाद में वहाँ जालपा भी आती है उसे ढूँढते हुए और उसके बुरे कर्मो को वो अपने श्रम से मिटाना चाहती है। उपन्यास का अंत दुखान्त है क्युंकि जोहरा जिसने रमानाथ के प्रति अपने सच्चे प्रेम का परिचय दिया, जिसने जालपा के साथ मिलकर रमानाथ को छुड़ाने में मदद की थी, उसकी मृत्यु हो जाती है। 

कुल मिलाकर यह उपन्यास स्त्री के आभूषण प्रियता से आरंभ होकर उसके त्याग व बलिदान की आत्मवेदी पर समाप्त हो जाती है।

ग़बन उपन्यास की भाषा शैली

ग़बन उपन्यास की भाषा स्पष्ट एवं सहज है। प्रेमचंद की भाषा की विशेषता यह है कि इनकी भाषा पात्रानुकूल है। शहरी पात्र की भाषा अलग और ग्रामीणों की अलग। शिक्षित और अशिक्षित पात्रों की पहचान इनकी भाषा शैली से ही पता चल जाता है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने भाषा को यथार्थ के धरातल पर उतारा है। सभी पात्र अपनी मनोदशा व परिस्थिति अनुकूल ही वार्तालाप करते है। 

ग़बन उपन्यास में पात्र योजना 

ग़बन एक चरित्र प्रधान उपन्यास है और इसका मुख्य धरातल मनोविज्ञान है। प्रेमचंद ग़बन उपन्यास के पात्रों की योजना इस प्रकार करते है, कि उनके पात्र अलग अलग व्यक्तित्व का प्रतिनिधि बनकर पाठकों के मन में अमिट छाप छोड़ देते है। ग़बन उपन्यास मध्यवर्ग के पतनोन्मुख व उन्नतिशील दोनों पहलुओं को उजागर करती है। प्रेमचंद ने इसमें उपन्यास की दृष्टि से पात्रों की संख्या उतनी ही रखी है जितने में ये कथावस्तु को विस्तार दे सकें और समाज के हर तबके के लोगों के चरित्र को उभार सकें। अधिक पात्रों की संख्या कभी कभी कथावस्तु को समझने में बाधा पहुँचाते है।
            उपन्यास के पात्रों के माध्यम से प्रेमचंद यथार्थ पात्रों की सृष्टि करते है। ऐसे पात्र जो समाज में आज भी अपनी चारित्रिक प्रवृत्तियों के कारण बने हुए है। जालपा के माध्यम से एक ऐसी स्त्री का चित्रण करते है जिसने अपने जीवन में पति से ज्यादा आभूषणों को महत्व दिया। और उसके कारण ही रमानाथ एक के बाद एक अपराध करता चला गया। रमानाथ के माध्यम से ऐसे अहमवादी पुरुष का चित्र खींचते है, जो पत्नी के सामने बड़ी बड़ी बातें करता है। पर पीठ पीछे उसी के गहने चोरी कर अपने पिता को देता है। अपनी पत्नी को अपनी आर्थिक विवशता बताने के बजाय उसे प्रभावित करने हेतु उधार पर गहने ले आता है।
           दयानाथ के माध्यम से ऐसे पिता का चित्र प्रस्तुत करते है जो समाज में दिखावे की जिंदगी जीते है, रमानाथ की शादी में भी जरूरत से ज्यादा खर्च होने पर कर्ज का बोझ आ जाता है, और उसकी भरपाई वे बहु के गहने देकर चुकाते है। यहाँ भी वे एक ऐसे पिता के रूप में प्रस्तुत होते है जिसे अपने बेटे को बहु के गहने चुराने पर डाँटना चाहिए पर वो ऐसा नही करते और स्वयं उस पाप में भागीदार बन जाते है। जोहरा का चरित्र समाज के ऐसे वर्ग को प्रस्तुत करता है जिसे लोग निकृष्ट कोटि का काम करनेवाले लोगों की श्रेणि में खड़े कर देते है। पर वही जोहरा अपने प्राणों की परवाह किये बग़ैर ही रमानाथ को उस जंजाल से मुक्त कराती है। उपन्यास में ऐसे पात्र भरे हुए है जो अपनी चरित्रगत विशेषता द्वारा पाठकों को संदेश देते है और उनका मार्गदर्शन भी करते है।
        निष्कर्षतः ग़बन उपन्यास के पात्रों की योजना प्रेमचन्द जी ने बहुत विचार कर ही किया है। हर पात्र अपने चरित्र को बखूबी निभाता भी है। और समाज में सकरात्मक प्रभाव भी डालता है। 
               
                                          ज्योति कुमारी 






बुधवार, 16 जून 2021

दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संग्रह 'सायें में धूप'


पुस्तक समीक्षा 


 पुस्तक - सायें में धूप ( ग़ज़लों का संग्रह) 
लेखक - दुष्यंत कुमार
प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन
मूल्य - 95₹ 
पहला संस्करण - 1975
चौसठवाँ संस्करण - 2016 


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लेखक परिचय 

       हिंदी संसार में दुष्यंत कुमार एक ग़ज़ल कवि के रूप में विख्यात है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील निज़ाबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। इनके पिता का नाम चौधरी भगवतसहाय और माँ का नाम राजकिशोरी देवी था। दुष्यंत कुमार का पुरा नाम दुष्यंत नारायण सिंह त्यागी था। आरंभिक कविताएँ वे 'विकल' उपनाम से लिखा करते थे। अपनी प्रसिद्ध कृति 'सायें में धूप' संग्रह को वे अपने छोटे भाई मुन्नू जी अर्थात् प्रेम नारायण सिंह त्यागी को समर्पित करते है। 

              

लेखक की भाषा   

दुष्यंत जी अपनी ग़ज़लों में जिस भाषा का प्रयोग करते है, उससे उर्दू के कुछ दोस्तों को ऐतराज है। क्युंकि उनकी भाषा ना तो पूर्णतः उर्दू है, ना पूर्णतः हिंदी। प्रेमचं की भाषा में कहूं तो वह हिंदुस्तानी भाषा है। दुष्यंत जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह उर्दू ही है जो हिंदी में घुल-मिल गई है। 'सायें में धूप ' संग्रह की भूमिका में वे लिखते है - " कि उर्दू और हिंदी अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती हैं तो उनमें फ़र्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नियत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा करीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़ले उस भाषा में कही गई है, जिसे मैं बोलता हूँ। "

                  

सायें में धूप पुस्तक के बारे में  

          'सायें में धूप ' संग्रह में दुष्यंत कुमार द्वारा रचित कुल 52 ग़ज़लों को संकलित किया गया है। इन सभी ग़ज़लों की खासियत यह है कि ये  विभिन्न विषयों को केंद्र में रख कर लिखे गए है। दुष्यंत जी को इसकी प्रेरणा कवि मिर्ज़ा ग़ालिब से मिली थी। ग़ालिब अपनी व्यक्तिगत दुःख को ग़ज़ल के माध्यम से ही लोगों के साथ साँझा करते थे। और चूंकि दुष्यंत जी का दुःख ग़ालिब से इस अर्थ में ज्यादा था कि उनका दुःख केवल निजी ना होकर, सामाजिक भी था । फिर चाहे वो प्रेम में असफल हुए व्यक्ति का दुःख हो या सरकार की दुहरी राजनीति से त्रस्त आम जनता का दुःख हो।

      

सायें में धूप के ग़ज़लों में वर्णित विषय 

      दुष्यंत जी ने राजनीतिक व्यवस्था पर भी व्यंग्य किया है। 'सायें में धूप' संग्रह में संकलित पहला ग़ज़ल इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है- 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए , 

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। 

यहाँ दरख़्तों के सायें में धूप लगती है, 

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए। 

ना हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, 

ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए। 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, 

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए। 

तेरा निजाम है सिल दे ज़ुबान शायर को, 

ये एहतियात ज़रूरी है इस बसर के लिए। 

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, 

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

                                                  (पृष्ठ सं-13) 

                   आज़ादी के बाद देश में जिस उद्देश्य हेतु राजनीति व्यवस्था का निर्माण हुआ उसका स्वरूप ही विकृत होता चला गया। सरकार की क्रूर नीतियों को देखते हुए दुष्यंत जी ग़ज़ल के माध्यम से उनपर करारा व्यंग्य करते है साथ ही लोगों में नई क्रांतिकारी चेतना का संचार करते है। सरकार की राजनीति पर प्रहार करती उनकी एक और ग़ज़ल मुझे बहुत सटीक लगी । 

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, 

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। 

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह, 

ज़िंदगी ने जब छुआ तब फ़ासला रखकर छुआ। 

गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं, 

पेट भरकर गालियाँ दो, आह भरकर बद्दुआ। 

क्या वजह है प्यास ज़्यादा तेज़ लगती है यहाँ, 

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआँ। 

आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को, 

आपके भी खून का रंग हो गया है साँवला। 

इस अँगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो,

 जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुँआ। 

दोस्त, अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा ना हो, 

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ। 

इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

ब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।

                                                        (पृष्ठ सं-21) 

                इस पुस्तक में ऐसी तमाम ग़ज़ले है जिसे लोग मिशाल के तौर पर भी प्रयोग में लाते है। जैसे

 हो गयी है पीर पर्वत सी निकलनी चाहिए, 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

आज यह दीवार, पर्दों की तरह हिलने लगी, 

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 

                                                         ( पृष्ठ सं-30) 

            इन ग़ज़लों को पढ़कर अन्य ग़ज़लों के प्रति भी आपका रुझान बढ़ता जायेगा। हर ग़ज़ल का अपना ही महत्व है। आप जब उन ग़ज़लों को ध्यान से पढ़ेंगे तो स्वयं ही उसके उद्देश्य से परिचित हो जायेंगे। जैसे उनके इस ग़ज़ल में उनकी आशावादी दृष्टिकोण का परिचय मिलता है।

 इस नदी की धार में ठंडी  हवा आती तो है, 

नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। 

एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों, 

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है। 

एक खंडहर के हृदय सी, एक जंगल फूल सी, 

आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है। 

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी, 

यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है। 

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, 

पत्थरों से, ओट में जो जाके बतियाती तो है। 

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, 

और कुछ हो या न हो, आकाश सी छाती तो है।

                                                   (पृष्ठ सं-16) 

                

                     दुष्यंत जी की प्रेम में पगी हुई ग़ज़लों को पढ़कर मन मानो कल्पना लोक में विचरने लगता है। शब्दों का विधान ही ऐसा है की हम उस प्रवाह में बहने से खुद को रोक नही पाते है। इन ग़ज़लों को पढ़कर आप को भी ऐसी ही अनुभूति होगी। 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, 

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ। 

एक जंगल है तेरी आँखों में, 

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ। 

तू किसी रेल सी गुज़रती है, 

मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ। 

हर तरफ़ एतराज़ होता है, 

मैं अगर रोशनी में आता हूँ। 

एक बाजू उखड़ गया जब से, 

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ। 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में, 

आज कितने करीब पाता हूँ। 

कौन ये फ़ासला निभाएगा, 

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।(पृष्ठ सं-62) 

               

              इस ग़ज़ल में छिपे विरहानुभूति को एक सहृदय ही समझ सकता है। दुष्यंत कुमार अपने व्यक्तिगत तकलीफ़ों  को भी ग़ज़ल के माध्यम से ही पाठक वर्ग तक पहुँचाते है। इनकी ग़ज़लों में व्यक्त विचार मनुष्य को जागरूक व संवेदनशील बनाती है। 


मुझे यह पुस्तक क्यूँ पसंद है    

           'सायें में धूप' पुस्तक को जब मैंने पढ़ना प्रारंभ किया तो मेरे अंदर एक के बाद दूसरी और दूसरे से तीसरी ग़ज़ल को पढ़ने की इच्छा अपने आप होने लगी । इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह आपको ग़ज़लों के क्रम से बाँधे रखती है। और धीरे धीरे आप में इतनी रुचि पैदा कर देती है कि आप आसानी से इसे एक बैठक में ही समाप्त कर सकते है। 

                                   ज्योति कुमारी








बुधवार, 9 जून 2021

पायदान : एक डिस्टर्बिन्ग उपन्यासिका






उपन्यास - पायदान

 लेखिका - सोना चौधरी  

प्रकाशक - इतिहास बोध 

कीमत - 45 ₹ 

 प्रथम संस्करण - जून 2002 

 तृतीय संस्करण - जनवरी 2005 




  💻  TABLE OF CONTENT

 लेखिका का परिचय     

 

            युवा लेखिका सोना चौधरी का हिंदी संसार में पदार्पण नारी विमर्श को नई दिशा ले जाने हेतु हुआ है। उनकी पहली कृति 'पायदान'  नारी के प्रति पुरुषों की दुषित मनोवृत्ति को यथार्थ रूप में सामने लाती है। सोना चौधरी की अब तक तीन रचनाएँ - पायदान , विचित्र और गेम इन गेम प्रकाशित हुई हैं। लेखिका स्वयं राष्ट्रीय स्तर की फुटबॉल खिलाड़ी रह चुकी है। इन क्षेत्रों की विसंगतियों का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव है, और उन विसंगतियों लेखिका ने  को अपनी रचनाओं में उजागर भी किया है। 


         उपन्यास की विशेषता 


                   जून 2002 में प्रथम प्रकाशन से पायदान लगातार चर्चा में रहा है। दूसरे संस्करण में प्रसिद्ध उपन्यासकर मैत्रेयी पुष्पा की लंबी टिप्पणी भी आखिर में शामिल की गयी| मैत्रेयी पुष्पा लिखती है- " स्त्री का मर्दों के क्षेत्र में दस्तक देना अपने हाथ कटा लेने और पांव बांध देने की सजा का भागी है, आगे आकर बचा लेने वाला भी कोई कहाँ है ? सोना चौधरी ने इस दुभाग्यपूर्ण सच्चाई को खोलते हुए अपनी कहानी को बेबाक तरीके से कहा है। पायदान एक डिस्टर्बिन्ग उपन्यासिका है। "
                    उपन्यास के पहले पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियाँ समाज के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करती है। 

"जैसे ही लड़की 
कुछ नया करना चाहती है,
अकेली पड़ जाती है
वरना लोग साथ देते हैं 
 एक देवी का
एक सती का 
एक रंडी का "


उपन्यास की कथावस्तु       

          

          पायदान उपन्यास एक लड़की के कशिश, आँचल और अंत में आस्था बन जाने की कहानी है। इस प्रक्रिया में उसे मर्दवादी सत्ता का सामना करना पड़ता है। अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी जीना या निर्णय लेने के लिए उसे अपने अस्तित्व को खोना पड़ता है। समाज की दकियानुसी सोच द्वारा निर्मित विभिन्न पायदानों को चुनना पड़ता है। अपनी प्रसिद्धि व कीर्तिमान स्थापित करने हेतु उसे परिवारिक विरोध और सामाजिक तिरस्कार की शुरुआती पायदानों से गुजरना पड़ता है। फिर श्रम और यौन शोषण की पायदानें उसके हौसले को डगमगाती है। 
            

          लेखिका के शब्दों में - " किस्सा बस उस लड़की का जो अकेली भी निकलना चाहती है। अकेली, अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई जिंदगी के पड़ावों से निकलकर न जाने कहाँ कहाँ पहुँचने को आमादा हो जाती है। हैवानों का संग साथ, अंजानों की आत्मीयता, बड़े कहे जाने वालों की दुष्टता, शरीफजादों की बदनीयत। संवेदन की छाँव, दुराव और तिरस्कार की धूप । निराशा की बदलियां और उम्मीद की किरणें। तरह तरह के लोग और अंत में लब्बोलुबाव यह कि इंसान के, उसके व्यवहार के तौर तरीके बदलते जाते हैं, दुनिया बदलती जाती है। " 
             
        उपन्यास की कथावस्तु मूलतः स्त्री शोषण पर केंद्रित है, जिसकी शुरुआत लेखिका के घर से ही होती है। बचपन में चाचा और उसके दोस्तों द्वारा किए गए दुष्कर्म के कारण लेखिका व उसकी बहन के मन में परिवारिक असुरक्षा का भय उत्पन्न होता है। यह घटना लेखिका को अंदर से झकझोर देती है। फुटबॉल की चाहत के कारण उसे अपनी जिंदगी में इस शोषण का नया अध्याय देखने को मिलता है, जो लेखिका के मन-मस्तिष्क को गहरे रूप से प्रभावित करता है। परिवार की जिम्मेदारी व आत्मनिर्भर बनने की इस दौर में कोच, अध्यक्ष, मैनेजर, मेजर, डॉक्टर, बॉस, भोंसले आदि कितने ही पुरूषों से लेखिका का सामना हुआ जो ना केवल उसके शरीर को नोच खसोट लेना चाहते थे, अपितु पुरूषवादी सत्ता के समक्ष खड़े होने की उसकी हिम्मत को भी तोड़ देना चाहते थे। लेखिका अंत तक अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयत्न करती रही, पर मौकापरस्त पुरूष समाज उसे परिस्तिथियों से समझौता करने पर विवश कर देते है। फुटबॉल के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाने की इच्छा, अपनी अलग पहचान बनाने का सपना सब टूट जाता है। इस स्वार्थ लोलुप व कामुक पुरूष सत्ता के आगे लेखिका की आस्था डगमगा जाती है। उसके सपने अधूरे रह जाते हैं, साथ ही उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। और लड़खड़ाते कदमों से लेखिका वापस घर को लौट आती है। 
                यह उपन्यास कोई क्यूँ पढें

         यह उपन्यास सच में हिंदी के नारी विमर्श साहित्य में प्रसिद्धि पाने का अधिकारी है। लेखिका सोना चौधरी के विषय में इतना ही कहूंगी कि इस तरह के उपन्यास लिखने के लिए जिस बेबाकी की जरूरत है, वह उनमें विद्यमान है। जिस निर्भिकता से वे इस क्षेत्र की विसंगतियों का चित्रण करती है, वह सराहनीय है। लेखिका जानती थीं कि  इस उपन्यास से  समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके बावजूद भी उन्होंने ये उपन्यास लिखा। लेखिका के शब्दों में स्वयं उनके घरवाले उनके द्वारा लिखी किताबों को बक्से में बंद कर रखते है, क्युंकि समाज सच में ऐसे उपन्यासों की सच्चाई स्वीकार नहीं कर पाता है, और विरोध में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है। ये रचनाएँ कपोलकल्पित नहीं  है, वास्तविक जीवन से सरोकार रखने वाली है। अतएव समाज को निष्पक्ष होकर इन विमर्शों पर विचार करना चाहिए।
                                                          
                                                      ज्योति कुमारी


  वैधव्य का शाप  हाँ मैंने एक स्त्री को विधवा होते देखा  अभी कल की बात थी ,  जब मैंने उसकी हँसी बगल वाले घर के आँगन में सुनी थी  पर आज वो हँ...